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वो छोटा सा पत्थर

जानता हूं कि सागर असीम है
ना कोई अंत ना शुरुआत
शक्ति इतनी कि जिसे चाहे
अपने भीतर जज़्ब कर ले
ना कोई पर्वत उसकी राह में आ सकता है
ना कोई ज्वालामुखी उसे सुखा सकता है
ये जानते हुए भी कि
उसका कुछ नहीं हो सकता
उठा के पूरे ज़ोर से
मैं रोज़ फेंकता हूं
वो छोटा सा पत्थर

वो छोटा सा पत्थर
बिना किसी लक्ष्य के
गुम हो जाता है
सागर की उन लहरों के बीच
खो देता है अपना अस्तित्व
मगर मलाल नहीं
छोटा होकर भी
सागर को ललकारना
मेरे लिए धृष्टता नहीं
मन का विश्वास है
सोचता हूं
जो पत्थर गया वो आखिरी तो नहीं

मैं रोज़ नया पत्थर उठाता हूं
और छोटे से पत्थर के गुम होने में
खुद को भी कहीं गुम सा पाता हूं
ना कोई मकसद है ना स्वार्थ
मगर कोशिशें जारी हैं
जानता हूं
जो मेरी तरह सागर भी ज़िद करे
तो मैं और मेरी ज़िद
सब बह जाएंगे उसके पानी में
मगर कोई फ़र्क नहीं
उसकी भी तैयारी है

मेरा खत भी
एक छोटा सा पत्थर ही तो है
जो अक्सर जाता है तुम्हारे पास
ना कोई जवाब
ना कोई उम्मीद
बस गुम हो जाता है
कभी ना आने के लिये
मगर कोशिशें जारी हैं
उठा के पूरे ज़ोर से
मैं रोज़ फेंकता हूं
वो छोटा सा पत्थर

24 जून 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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