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अनुभूति में स्मिता दारशेतकर की
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बुढ़ापा दो दृष्टिकोण
 

 

बुढ़ापा : दो दृष्टिकोण

एक
 
जीवन के आख़िरी पड़ाव पर
उम्र के झुकाव पर
नियति का वार बुढ़ापा
दुर्बल काया दुर्बल मन
दुर्बल मन का संतुलन
अबला और लाचार बुढ़ापा
पीढ़ियों के बीच का अंतर
लंबा दिन जैसे विशाल समुंदर
निराश और हताश बुढ़ापा
जिंदा चलती लाश बुढ़ापा

दो

अब तो अपना जीवन जीवन जिएँ
खुलकर हँसें जी भर रोएँ
जाने कब शाम ढ़ल जाए
बुढ़ापा नहीं त्यौहार मनाएँ
अँधेरा अब छा जाएगा
क्यों दिन बिताएँ खाली-खाली
सुख ढूँढें छोटी बातों में
परिवार में बिखराएँ खुशहाली
तन की सोच का त्याग करें
मन में संतोष की भरें गागर
बन जाए वरदान बुढ़ापा
काम नहीं कोई आराम करें हम
धन्य है जिसका नाम बुढ्रापा

१ फरवरी २००६ 

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