अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

गुलमोहर मन भाए

 

गुलमोहर तुम मन भाये

चाहे जैसा भी हो मौसम
मुझे मिले तुम इठलाते
रोज देखता हूँ मैं तुमको
कभी नही तुम इतराते
लाल रतन-धन भरे हृदय में
बलखाते से लगते हो
हरियाली में रक्तपुष्प की
मुकुट पहन तुम सजते हो

यादों में हरदम आये

छाँव तले तेरे गुलमोहर
मन रोमांचित है होता
हरदम यही सोचता हूँ मैं
एक वृक्ष घर पर होता
सीना ताने आसमान से
व्यस्त सदा रहते बातों में
भीनी गंध गुजरती रहती
और चहकती है रातों में

संग पवन तुम लहराये

आशीषों की रिमझिम तुम
बरसात सदा ही करते हो
मंगलमय यात्रा हो सबकी
भाव यही तुम धरते हो
रूप-रंग-रस-गंध सहित
हरदम रहे तुम्हारी शान
गुलमोहर सच कहता हूँ
भरते नवगीतों में प्राण

सपनों में भी मुस्काये

- श्रीधर आचार्य शील
२८ अप्रैल २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter