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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
सरहद पर
 

मैं नहीं जान पायी
कि दो मुल्कों की फज़ीहत में
देश का बेटा
क्यों दफ़न हो गया
कैसे झुका दी गयी किले की बंदूक उसके सीने पर
नेता व्यस्त रहे
अपने अहम् की दीवारों पर
असहमति जताते रहे
गोलियाँ सीना छलनी करती रहीं सरहदों का
सत्ता खामोश
मीडिया आग उगलती रही

एक पासा खेला गया
एक और दाँव
हजारों लाशें कुछ इस तरफ कुछ उस तरफ
विश्व मौन
पर दीवारें सरहद नहीं होती
वो होती हैं अहम् की
वो होती हैं वर्चस्व की
वो होती है तानाशाहियत का नकाब पहने
जिसमें जब मरता है तो
मरता है आम आदमी

हर बार संधि
दोस्ती का मुगालता
बड़े बड़े देशों में छोटे छोटे देशों के किस्से
उसे बड़ा बनाते हैं
पर कोई पिता, कोई बेटा, कोई पडोसी, कोई बेहद अपना
घर लौट कर कभी नहीं आता है।

- मंजुल भटनागर
१० अगस्त २०१५


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