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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
क्या यही जनतंत्र है
 

पूछते हैं पाठशाला में पढ़े
माटी के बच्चे
देखकर ऊँची खड़ी स्कूल की
सुंदर दीवारें
ज्ञान के इस देश में दिख रहा
अंतर ये कैसा
बिक रहा है ज्ञान
अब वातानुकूलित से भवन में
ये हमारे देश की ऊँचाईयों का
मंत्र है
हाँ यहाँ जनतंत्र है

नींव दबती जा रही है
मौन की भाषा हुई
अब लुप्त सी
कौन समझे अनगढ़ों को
अनपढ़ों को, सरल जन को
मूक बेबस सजल नेत्रों की दुहाई
दे रहे कर्कश स्वरों को
कहाँ से लाए बेचारे
कृषक फिर मीठे स्वरों को
रागिनी अब बन चली ऊँचे शहर का
तंत्र है
हाँ यहाँ जनतंत्र है।

वासनाएँ बलबलाती
नंगी हुई है सड़क सारी
गिद्ध मानव की नजर से झाँकते हैं
नोचने को एक नारी
चीखती ही जा रही जनता बेचारी
गीदड़ों के रूप में शुभवस्त्रधारी
काम में संलग्न कहते
नारियाँ बस यंत्र हैं
क्या यही जनतंत्र है?

- उमेश मौर्य
१० अगस्त २०१५


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