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जनतंत्र हमारा 
 जनतंत्र को समर्पित कविताओं का संकलन 

 
 
स्वप्निल भारत स्वर्णिम भारत
 

चंचल उज्ज्ज्वल फेनिल लहरें
झिल-मिल झिल-मिल बल खाती हैं
गर्जन-तर्जन करता सागर
वे मोती से नहलाती हैं!

नीले पानी पर नभ नीला
मलयानिल का उस पर पहरा
ऊषा ने झट से लगा दिया
माथे पर सिंदूरी सेहरा!

हरियाली हरती हर विपदा
दक्षिण से उत्तर पश्चिम तक
बहते-गाते अविरल कल-कल
नदियों के शीतल-शीतल तट!

सम्मोहित करते लहराते
कोसों तक रेतीले दर्पण
जीता-जगता नर्तन करता
बिछला जाता फिर भी जीवन!

कृष्णा की वंशी की तानें
हर घर में गीता बसी रही
और रामचरित के दोहे सी
घट-घट में सीता रमी रही!

डूबा सूरज जल के भीतर
छायी लाली मीलों तट पर
फिर कलश उठाये किरणों का
चल पड़ी साँझ अपने पथ पर!

स्वप्निल भारत स्वर्णिम भारत
उजला कल था उजला कल है
कुछ मैली गंगा अब यदि है
निर्मल कल था निर्मल कल है!

- रंजना गुप्ता
१० अगस्त २०१५


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