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अभिव्यक्ति  २२. ९. २००८

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क्यों नदियाँ चुप हैं

 

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जब सारा जल
ज़हर हो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?
जब यमुना का
अर्थ खो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?

चट्टानों से लड़-लड़कर जो
बढ़ती रही नदी,
हर बंजर की प्यास बुझाती
बहती रही नदी!
जब प्यासा
हर घाट रो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?

ज्यों-ज्यों शहर अमीर हो रहे
नदियाँ हुईं गरीब
जाएँ कहाँ मछलियाँ प्यासी
फेंके जाल नसीब?
जब गंगाजल
गटर ढो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?

कैसा ज़ुल्म किया दादी-सी
नदियाँ सूख गई?
बेटों की घातों से गंगा-मैया
रूठ गईं।
जब मांझी ही
रेत बो रहा, क्यों नदियाँ चुप हैं?

-राधेश्याम बंधु

इस सप्ताह

गीतों में-
राधेश्याम बंधु

अंजुमन में-
चाँद शुक्ला हदियाबादी

छंदमुक्त में-
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दिशांतर में-
आलोक शर्मा

हाइकु में-
डॉ. जीवन प्रकाश जोशी
 

पिछले सप्ताह
१५ सितंबर २००८ के अंक में

हिन्दी दिवस के अवसर पर-
मातृभाषा के सम्मान में २७ रचनाएँ

गीतों में-
यतीन्द्र राही

अंजुमन में-
अशोक अंजुम

पुनर्पाठ में-
बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

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प्रभु त्रिवेदी

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-|- सहयोग : दीपिका जोशी
 
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