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अभिव्यक्ति  

१९. १०. २००९

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आने वाले कल पर सोचो
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कुछ तो बेहतर हल पर सोचो
आने वाले कल पर सोचो

ठहरा मौसम टूटे दर्पण
खेतों में उड़ती चिनगारी
सूख रही पानी की साँसें
पत्तों पर बैठी सिसकारी
खेत अगर अच्छे हैं इतने
क्यों बीमार फ़सल पर सोचो

जड़ बरगद की फैल न पाती
हर छाया को चोट लगी है
गली देखकर हवा मुड़ रही
किसकी होती धूप सगी है
पहले बाहर पाँव निकालो
फिर जालिम दलदल पर सोचो

बाँध बने तो नदी खो गई
बादल तक अनदेखी करते
कागज़ की नावों के सपने
चढ़ते तो हैं नहीं उतरते
सावन के हैं भरे महीने
क्यों गुम हैं बादल पर सोचो

काली रात पहाड़ों पर है
सूरज की रखवाली करती
पेड़ों में इस कदर ठनी है
पत्तों से हरियाली झरती
पाइप पानी हड़प रहा है
अब इस ठहरे जल पर सोचो

- सुधांशु उपाध्याय

इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

हाइकु में-

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
१२ अक्तूबर २००९ के अंक में

गीतों में-
शतदल

अंजुमन में-
आलोक श्रीवास्तव

दीपावली के अवसर पर विशेष-
संकलन शुभ दीपावली

छंदमुक्त में-
संतोष कुमार खरे

क्षणिकाओं में-
इमरोज़

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
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