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३०. १. २०१२

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चुलबुली किरन

सूरज फिर
से हुआ लाल है

कितनी खुली हुई है सबसे
ये चुलबुली किरन
(भोर की
ये चुलबुली किरन)

घर-घर जाकर भीतर-बाहर
खींच रही है सबकी चादर
हर सोए की खाट उठाकर
फिर हो गई हिरन

घूम रही घर-घर में ऐसे
सारे घर इसके हों जैसे
खेल कर रही कैसे-कैसे
डर की नहीं शिकन

स्याही कोनों में सरका दी
चौंके की कुण्डी खड़का दी
ये आज़ादी की शहज़ादी
(बाँध रही छत के छिद्रों में)
टूटे हुए रिबन


-रमेश रंजक

इस सप्ताह

गीतों में-

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रमेश रंजक

अंजुमन में-

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बसंत ठाकुर

छंदमुक्त में-

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श्रीकांत सक्सेना

हाइकु में-

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ऋता शेखर मधु

पुनर्पाठ में-

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शांति सुमन

पिछले सप्ताह
२३ जनवरी २०१२ के अंक में

गीतों में-
राजा अवस्थी

अंजुमन में-
राजीव भरोल

छंदमुक्त में-
ब्रज श्रीवास्तव

दोहों में-
कल्पना रामानी

पुनर्पाठ में-
अमृता प्रीतम

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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