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						 पीढ़ियाँ 
						अक्षम हुई हैं, 
						निधि नहीं जाती सँभाली 
						
						1 
						छोड़ निज  
						जड़ बढ़ रही हैं, नए मानक गढ़ रही 
						हैं.  
						नहीं बरगद बन रही ये- पतंगों सी 
						चढ़ रही हैं 
						चाह लेने की असीमित- किन्तु  
						देने की कंगाली. 
						
						1 
						नेह-नाते  
						हैं पराये, स्वार्थ-सौदे नगद 
						भाये  
						फेंककर तुलसी घरों में- कैक्टस 
						शत-शत उगाए 
						तानती हैं हर प्रथा पर अरुचि की  
						झट से दुनाली 
						
						1 
						भूल, देना- 
						पावना क्या? याद केवल चाहना क्या? 
						बहुत जल्दी 'सलिल' इनको- नहीं मतलब भावना क्या? 
						जिस्म की कीमत बहुत है. रूह की  
						है फटेहाली 
						
						1 
						- आचार्य 
						संजीव सलिल  |