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अभिव्यक्ति तुक-कोश

२५. ४. २०१८

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गर्मियाँ हैं

 

 

देह का बोला पसीना -
गर्मियाँ हैं

बर्फ़ की पिघली शिलायें जल हुई हैं
सूख कर नहरें, नदी मरुथल हुई हैं
आग का आया महीना -
गर्मियाँ हैं

दिन सुनाता धूप के जलते तराने
पेड ठँडी छाँव के हैं शामियाने
मन हुआ लू का कमीना -
गर्मियाँ हैं

सूरज तो बडा ग़ुस्सैल है

 
यार ! सूरज तो बहुत ग़ुस्सैल है !

दिन चढ़े से आग बरसाता हुआ
आदमी को देख गुर्राता हुआ
देव है या मरखना
सा बैल है !

गर्म लू से हर शहर सहमा डरा
सिर्फ़ ठँडी छाँव का है आसरा
वो महल है या कोई
खपरैल है !

सब पसीने से मिलेंगे तरबतर
हर गली सुनसान हर सूना सफर
सोच में इसकी कहीं
तो मैल है !

- कृष्ण भारतीय

इस माह
ग्रीष्म महोत्सव के
अवसर पर

गीतों में-

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अनूप अशेष

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आभा सक्सेना दूनवी

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कल्पना मनोरमा

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कल्पना रामानी

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कुमार रवीन्द्र

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कृष्ण भारतीय

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गरिमा सक्सेना

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चन्द्रप्रकाश पाण्डे

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देवव्रत जोशी

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देवेन्द्र सफल

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प्रदीप शुक्ल

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बसंत कुमार शर्मा

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ब्रजनाथ श्रीवास्तव

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मधु शुक्ला

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मलखान सिंह सिसौदिया

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रंजना गुप्ता

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रविशंकर मिश्र रवि

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राकेश सुमन

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राजेन्द्र वर्मा

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राहुल शिवाय

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विनोद निगम

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शशिकांत गीते

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शशि पुरवार

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शिवानंद सिंह सहयोगी

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शीलेन्द्र सिंह चौहान

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सीमा अग्रवाल

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सुरेन्द्र कुमार शर्मा

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सुरेन्द्रपाल वैद्य

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छंदमुक्त में-

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अजित कुमार

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अश्विन गांधी

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मधु संधु

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छंदों में -

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ओमप्रकाश नौटियाल

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परमजीतकौर रीत

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी