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आँख अश्कों का समंदर
ज़माने को बदलना
टूटे ख्वाबों
दिल में दर्द
पास कभी तो आकर देख

अंजुमन में-
ख्वाबों में अब आए कौन
घर से बाहर
छोटा सा उसका कद
जब से बेसरमाया हूँ
वो इस जहाँ का खुदा है
शेख बिरहमन

 

आँख अश्कों का समंदर

आँख अश्को का समंदर है तो है
वक्त के हाथों में खंजर है तो है

मैंने कब माँगी खुदा तुझसे ख़ुशी
दर्द ही मेरा मुकद्दर है तो है

फूल कुछ चाहे थे तुझसे बागबां
हाथ में तेरे भी पत्थर है तो है

थक गया हूँ अब तो सोने दो मुझे
सामने काँटों का बिस्तर है तो है

मेरे संग भी है मेरी माँ की दुआ
तू मुकद्दर का सिकंदर है तो है

तूने ही कब घर को घर समझा 'अनिल'
घर से जो तू आज बेघर है तो है

२ अप्रैल २०१२

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