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अनुभूति में हरि अन्जान की रचनाएँ-

अंजुमन में-
अगर चलने का
आया किये थे तेरे शहर
ज़ख़्मों को हवा
धूप
फ़ासिले

 

आया किये थे तेरे शहर

आया किये थे तेरे शहर आइना होकर
अब रह गया हूँ महज़ एक हादिसा होकर।

कैसे कहें क्या हुआ पैकरे हयात यहाँ
जब गुज़रता है यहाँ वक़्त सानिहा होकर।

उमर गुज़री है फ़क़त इक तलाश में खुद की
यूँ कुरबतों में रहा एक फ़ासिला होकर।

गुम हो गये मायने जब सदा-ए-लफ़्जों में
जीता रहा इक दर्द महज़ नाखुदा होकर।

इक साँस की बेबसी पे अन्जान यां कोई
बिकती रही ज़िन्दगी एक बेहया होकर।

८ अगस्त २०११

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