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अनुभूति में 'साग़र' पालमपुरी की रचनाएँ-

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अपनी फ़ितरत
किस को है मालूम न जाने
खोये-खोये-से हो
ज़ेह्न अपना
सोच के ये निकले

अंजुमन में-
कहाँ चला गया बचपन
चिड़ियों के घोसले
जिसको पाना है
बेसहारों के मददगार
रात कट जाए
वो बस के मेरे दिल में भी

  किस को है मालूम न जाने

किस को है मालूम न जाने
कब जीवन की साँझ ढले
मन के शीश महल में फिर भी
इक अनजानी आस पले

जिन नज़रों में मधुर मिलन की
चाह झलकती थी उनमें
विरह के बादल बरसें जब
यादों की पुरवाई चले

मैं हूँ घर का जोगी मेरी
अपनों को पहचान कहाँ
लेकिन परदेसों में अक्सर
घर-घर मेरी बात चले

जाने क्यों इस अन्धे युग को
सपनों पर विश्वास नहीं
गिरधर मुरली की धुन छेड़ें
जब-जब मीरा आँख मले

भूले से भी पाँव न धरना
माया के इस मधुबन में
जिसमें पग-पग पर राही को
तृष्णाओं का हिरण छले

अब उसके दरवाज़ों पे 'साग़र'!
संदेहों की काई है
गैरों को भी अपनाते थे
जिस नगरी के लोग भले.

३ नवंबर २००८

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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