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अनुभूति में ओम प्रकाश 'नदीम' की रचनाएँ—

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चल पड़ा दरिया
जिक्र मत करना
ये न समझो
सामने से

अंजुमन में-
नज़र आते हैं
बंद घर में
मर्तबा हो
सपने में

 

मर्तबा हो

मर्तबा हो, इल्म हो या तजरुबा हो कुछ तो हो।
कुछ न हो बात करने की कला हो कुछ तो हो।

इस तरह बेसूद रिश्तों से भला क्या फ़ायदा,
या तो कुछ कुर्बत बढ़े या फासला हो कुछ तो हो।

हर तरफ़ से मुझ पे डाली जा रही है रोशनी,
कद न बढ़ पाए तो साया ही बड़ा हो कुछ तो हो।

कैसे दूँ मैं अपने अज़्मो हौसले का इम्तिहाँ,
मुश्किलें हों या तुम्हारी बद्दुआ हो कुछ तो हो।

और कितना वक्त मुल्ज़िम की तरह काटें नदीम,
या तो बाइज़्ज़त बरी हों या सज़ा हो कुछ तो हो।

२४ नवंबर २००५

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