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पानी रे पानी
मज़ा
मैं अगर लीडर बनूँ तो
शहर में हैं सभी अंधे
साथ तुम्हारा कितना प्यारा

 

 

मौसम से परेशान सब

मौसम से भी परेशान हैं सब
अरे रे ... बहुत सर्दी है
इससे तो गर्मी भली थी
जो गई है अब चली
गरीब ज्यादा परेशान है
कपड़ों की महंगाई
और मौसम की बेवफाई
दोनों से हैं दुखी
पहनें या ओढ़ें
क्या बिछाएँ
कितना धन जोड़े
कितना बचाएँ?

जो अमीर हैं वो तो
चले जाते हैं सर्दियों में वहाँ
जहाँ होती हैं गर्मियाँ
उन्हें क्या गम
कपड़े खरीदना शौक है जिनका
नहीं है समस्या
पूर्णिमा हो या अमावस्या।

जब हो गर्मी का मौसम
गर्मी से तो हाल बेहाल है
ये तो जी का जंजाल है
इससे तो सर्दी भली
गर्मियों में लग जाती है
पसीने की झड़ी
बरसात क्यों नहीं होती
बरसात हुई तो
सब जगह पानी भर गया
कहीं कहीं कीचड़ हो गया
कम हुई तो
इससे न होती तो ही अच्छा था
अब जमीन आग उगलने लगी है
ज्यादा हुई तो
अब बंद भी होगी या नहीं
रोज कमाकर रोज खाना है हमें
भूखा मार देगी
किसान अलग दुखी है
लो बंद हो गई
हुई ही कितनी है
इसका नहीं है कोई उपाय ।

मौसम कोई भी हो
किसी के माफिक नहीं होता
हरेक को गिला रहता है
पता नहीं कौन सा मौसम चाहिए
क्या होती होगी कोई ऐसी भी ऋतु
जो सबको बढ़िया लगे
जिससे कोई गिला शिकवा
और परेशानी न हो किसी को।

जब आदमी हर एक से
परेशान है तो
उसको संतुष्ट कर सके
भला मौसम की क्या बिसात ?

1 दिसंबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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