| सफ़ेद कबूतर उन्नीस सौ सैंतालिस का अगस्त 
                    महीना थाजब मैं छूटा था उन रक्तिम पंजों से
 और आज़ादी की हुलास में उड़ता ही चला गया
 उड़ान देखकर दंग था आसमान
 वरुण देव ने दबा ली थी दाँतों तले अँगुली
 मेरा रंग सफ़ेद झकऔर आधी रात का वक्त
 चारों तरफ़ काला घुप्प
 ऐसे में मेरे पंख हवाओं में
 गुलाबी ठंड भर रहे थे
 मेरे शरीर सेआज़ादी का सुख
 पूर्णिमा के चाँद से भी ज़्यादा
 तेज रौशनी के साथ दमक रहा था
 एक कबूतर अंधेरे के खिलाफ़पहली बार उड़ान भर रहा था
 
 इसलिए खुश थे सभी देवी-देवता
 कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र
 खुशी से दे दिया मुझे
 इंद्रधनुष ने दिए दो रंग उपहार में
 हरे रंग को एक पंख पर
 दूसरे पर पर केशरिया
 पीठ के बीचों-बीच
 घूमते हुए सुदर्शन चक्र को लिए
 मैं आधी सदी से उड़ रहा हूँ
 इंतज़ार कर रहा हूँकब सुबह हो और उतरूँ
 अपने देश की आज़ाद धरती पर
 २४ जनवरी २००६  |