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अनुभूति में प्रियंकर पालीवाल की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अटपटा छंद
इक्कीसवीं सदी की रथयात्रा
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
प्रतीत्य समुत्पाद
वृष्टि-छाया प्रदेश का कवि
सबसे बुरा दिन

तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो

भले किसी और की हो जाएँ
ये गहरी काली आँखें
वे सितारे मेरी स्मृति के अलाव में
रह-रह कर चमकते रहेंगे जो
उस छोटी-सी मुलाकात में
चमके थे तुम्हारी आँखों में

भटकाव के बीहड़ वन में
वे ही होंगे पथ-संकेतक
गहन अंधियारे में
दिशासूचक ध्रुवतारा
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
अभौतिक अक्षांशों के
अलौकिक फेरे
संभव नहीं हैं तुम्हारे बिना

जीवन लालसा के तट पर
हाँफ़ते रहने का नाम नहीं
किंतु अब निर्वाण भी
प्राथमिकता में नहीं है

मोक्ष के बदले
रहना चाहता हूं
तुम्हारी स्मृति के अक्षयवट में
पर्णहरित की तरह

स्नेह की वह सुनहरी लौ
नहीं चाहता– नहीं चाहता
वह बेहिसाब उजाला
अब तुम्हें पाने की
कोई आकांक्षा शेष नहीं

जगत-जीवन के
कार्य-व्यापार में
प्रेम का तुलनपत्र
अब कौन देखे !

अपने अधूरे प्रेम के
जलयान में शांत मन
चला जाना चाहता हूं
विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर
जहाँ मेरी और तुम्हारी कामनाओं
के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं।

२९ अगस्त २०११

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