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अनुभूति में रश्मि भारद्वाज की रचनाएँ-

छंद मुक्त में-
कुछ शब्द चाहिये
जननी भोग्या भी बन सकती है
तुमसे है कविता
मैं नहीं कर पाती तुम्हें प्रेम
हाँ इसे प्रेम ही कहेंगे शायद

 

हाँ, इसे प्रेम ही कहेंगे शायद

हाँ, इसे प्रेम ही कहेंगे शायद
कि हमारे बीच अब नहीं है जरूरत शब्दों के उस सेतु की
जिस पर चलकर ही कभी
हम पहुँच पाते थे एक-दुसरे तक
आँखों के किनारों से टकराती हैं मौन की आतुर लहरें
जिसमे निर्बंध तैरते रहते हैं हम
साथ-साथ लेकिन फिर भी अलग
यह अच्छी तरह जानते हुए कि डूबेंगे नहीं
बिना एक दूसरे को लाइफ जैकेट की तरह पहने हुए भी।

हाँ, यह प्रेम ही तो है
कि यह जानते हुए भी कि धीरे-धीरे समय की आँच
पर सुलग रहे हैं रिश्ते
और घुल रहा है हवा में कार्बन मोनो आक्साईड
जो मुश्किल करता है साँस लेना भी
हम सँजोये रखते हैं ताज़ी हवा की उम्मीद
और बनाते रहते हैं नयी खिड़कियाँ दीवारों में
ताकि शीतल हवा के झोंके कम कर सकें जलन की तासीर
और मिल सके घुटन से निजात।

इसे प्रेम नहीं तो और क्या कहेंगे
कि रोज़ टूटते सपनों की किरचों पर चल कर होते हैं लहूलूहान
फिर भी खरीद लाते हैं
अक्सर एक नया झिलमिलाता सपना
और सँभाल कर रख देते हैं शो-केस में
यह जानते हुए भी कि उसे भी टूट जाना है एक दिन
यों ही, कभी हमारी ही लापरवाही से
या फिर खो देनी है अपनी रंगीनियत
धूल की रोज़ ही चढ़ती मोटी परत के नीचे
उसे चमकाते रहने की तमाम कवायदों के बाद भी।

सच कहा तुमने, यह प्रेम ही होगा
कि जानते हैं, मुश्किल है साथ चलना
हम चलते रहते हैं समानांतर
एक ही सड़क पर
बिना हाथों में हाथ डाले
क्योंकि हमारा इंतज़ार करती जिन्दगी की
ब्लू लाइन बस ने
हमारा स्टॉप एक ही रखा है
और एक ही मंजिल भी
और वो भी हमारे मशवरे पर ही

किसने कहा, प्रेम आँखों में आँखें डाले
हाथ थामे, साथ चलने का नाम है
आसमाँ नीला है और घास हरी
प्रेम इस उम्मीद के जिन्दा रहने का नाम है
हर उम्मीद के टूटते चले जाने के बाद भी।

२३ फरवरी २०१५

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