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समर्पण
सुलझी हुई
पहेली

 

पत्थर होती दुनिया

मुहावरे अपने अर्थ
गढ़ने में नाकाम रहे हैं।

शब्द अपनी संवेदनाओं
की तह तक नहीं पहुँचे।

रोशनी, अँधेरों की बग़लगीर
हो गई है।

मौन चीख़ने चिल्लाने को
मजबूर हो उठा है।

अवतारों के चमकते चेहरे
स्याह पड़ने लगे हैं।

बरसों स्थापित रंग तक
चुराए जा रहें हैं।

जीवन राही को
अपनी मंज़िल नहीं मिल सकी है।

इस त्रासदी अवसाद से भरे
दुरूहपूर्ण समय में
मैं लिख रही हूँ
कविता, शायद
शब्दों के ताप से पिघल सके
पत्थर होती दुनिया।

1 दिसंबर 2006

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