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अनुभूति में मनीष जोशी की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
उदारीकरण : उपसंहार
तुम नहीं थीं
प्रभात
भटकटइया फूल
शोय शोय

 

उदारीकरण : उपसंहार

बाज़ार के बीचों-बीच भरा पूरा धँसता हुआ
बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
पीछे मुड़कर देखता है / आगे चलताहै
पोले खम्भे से भट भिड़ता है
पीछे देखता ही क्यों है?
लम्बी दौड़ का कछुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
पीछे देखता है शायद
बाज़ार के मुहाने से पीछे का अरण्य
जिसमें अभी भी हिरन, खरगोश, गिलहरियाँ हैं शायद
शेर, छछूंदर और कनखजूरे, इल्लियाँ और तितलियाँ शायद
बेताल, बनदेवता और बनमानुसों के अलावा
कितने और सारे खोये शायद
उल्टे पैर, तोतले स्वर, पीपल के गाछ
भय से अचरज से अपवाद बनते हुए
पत्तियों के साथ-साथ खाद बनते हुए
और देखता है शायद
उठता उपलों में सीझा धुआँ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
कंधे झाड़ताहै
सम्हलता है
अपनी झेंप में विश्वास
और कनखियों में साख
(और आदमीयत?)की पुष्टि मलता है
और चलना शुरू करता है
फिर आगे चलता है
खुले अखबारों चीखते चैनलों को चीरते संसार का जायज़ा लेने में व्यस्त
अस्त और उदय की जुगलबंदी में लगातार त्रस्त
अविश्वास की मौज में छंटा विद्रोही
डिग्रियों, साक्षात्कारों, असल-नसल और जनम पत्रियों का बटोही
लपककर लपकता है
कुछ अपने हिस्से की दुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
आगे सा ही बढ़ता है
तमाम जगती, जगमगाती, रोशनियों
रेहड़ी, दुकानों, और उनके निशान- परेशानियों को पूछता
ताकते, टोकते विज्ञापनों में पुरस्कार ढूँढता
निशेधाज्ञाओं और षड्यंत्रों की जद्दोजहद में
कम नज़र समेटता है, कम्बल, गद्दे, रजाइयाँ
और जैसी भी गरमी की बिखरी परछाईयाँ
रात में अलाव की लकडियों के लिए
जंगल में और नहीं लौटना चाहता
लील न ले कहीं
कोई पुराना ठंडा कुआँ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
आड़ी, टेढ़ी, जलेबी लकीरों में खींचता है
नियति, सम्बन्ध और बाज़ार की संभावनाओं के बीच
सफ़ेद, बुर्राक़ और प्रकाश का अन्तर,
खनखनाते नसीब और खखारती आत्मा के पशोपेश में
जो नहीं देखना है उसे परदे के पीछे
या मुठ्ठी के भींचे अन्दर
या रोशनी की पीठ के गुच्छे तारों में
या हाशिये और प्रवाह के एक साथ समानांतर
खेलता है
चाव से लतों में फेंटकर
साँप, सीढ़ी और जुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
धीरे-धीरे छोड़ता है, असबाब, माल-टाल
फरुआ, हल, तसला, असलहा, चैन, गैंती, रेगमाल,
फिर भी
जुतने और जोतने के दोधारी अस्तित्व में अभी तक वर्तमान
एक गंडा भर बाँधे है श्रीयुक्त श्रीमान
कुछ स्वस्थ कुछ थके हाल
ताबीज़ भरे है हंस के पंख, लोमड़, गैंडे और बाघ के बाल
हालचाल में सधे चेहरे जानता चिन्हाता है
गउओं, कउओं, गिद्धों, गिरगिटों में बतंगड़ बनाता है
(और कान के पीछे काला टीका अब नहीं लगवाता है)
तीन सौ दो, चार सौ बीस को गिनती नहीं मानता
खिड़कियों पर सलाखें, जंगले, मोटी जालियाँ लगवाता, ठोंकता
सजाता है द्वार पर
संटी वाला पहरुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
पता नहीं, मौका तलाश रहा है
पता नहीं ज़िंदा है या अवकाश रहा है
पता नहीं कर्तव्य के निर्वाह में है
या बेचैन आरामगाह में है
यह भी पता नहीं कभी
उसकी आँखों के कोनों से टहल गया अतिरेक
विदा का था या मुक्ति का
प्रश्न भूले बिसरे हुलसता है, कभी एक
अभी भी समझ में नहीं आता है
उन्माद का सृजन
पुरवा था या पछुआ?

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
भूल से भूल लिखता हुआ
वो तो जा चुका, निकल गया
क्या था? कहाँ, किसका हुआ? 

८ जून २०१५

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