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अनुभूति में रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' की रचनाएँ

कविताओं में-
काँटे मत बोओ
काननबाला
चुकने दो
तुम्हारे सामने
तृष्णा
द्वार खोलो
दीपक माला
धुंध डूबी खोह
पास न आओ
पावस गान
फिर तुम्हारे द्वार पर
मत टूटो
मेरा दीपक
ले चलो नौका अतल में

संकलन में
ज्योति पर्व-दीपावली
ज्योति पर्व- मत बुझना
तुम्हें नमन-बापू
ज्योतिपर्व- दीपक मेरे मैं दीपों की

  तुम्हारे सामने

हर नया प्रतिबिंब ढलता है तुम्हारे सामने
हर नया विश्वास पलता है तुम्हारे सामने

फुसफुसाते इन सभी पागल प्रतीकों से कहो
ये समय की खाद को अब तो लगें पहचानने

ताल देने में न, सिजदों में न है इनका जवाब
राज इनकी लगजिशों का भी तुम्हारे सामने

फूल के सहजात काँटे भी पले मधुवात में
जी न पाते क्यों बहारो! ये तुम्हारे सामने

खून है इनकी रगों में भी टहनियों का उन्हीं
है इन्हें भी तो रचा-पोसा इसी उद्यान ने

जो सुला दे हर हकीकत की सदा को, दर्द को
वे न आने दे किसी का गम तुम्हारे सामने

और हम सदके तुम्हारे पारदर्शी सत्र के
हो रहे कितने सधे अभिनय तुम्हारे सामने

वर्तिकाएँ सब बुझी जातीं इधर नेपथ्य में
दीप मणियों के उधर जलते तुम्हारे सामने

सब सुबह गूँगे जनमते और शामें बेनिगाह
पर उगलते स्वर भरे जलवे तुम्हारे सामने

डाल-टूटी आस्थाओं ने जिन्हें दे दी उड़ान
रह गईं थम कर हवाएँ वे तुम्हारे सामने

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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