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अनुभूति में डॉ० त्रिमोहन 'तरल' की रचनाएँ-

गीतों में-
अश्क से भीगी निगाहें
इधर-उधर की
ओ नदी
क्यों अभी तक
मधुर मास के प्रथम पुष्प की

संगदिल शहर में
सब कहते हैं

 

अश्क के भीगी निगाहें

अश्क से भीगी निगाहें
राज़ दिल का खोलती हैं
सुन सके कोई इन्हें तो
चुप्पियाँ भी बोलती हैं

सुबकियों में क़ैद होती
दर्द की पूरी कहानी
जिस तरह से सीपियों में
बंद मोती की जवानी
ख़ास बूदों के लिए ही
सीपियाँ मुंह खोलती हैं
सुन सके कोई इन्हें तो

रवि-किरन की छुअन भर से
भोर की कलियाँ चटकती
थकन दिन की रात के
आगोश में चुपके सिमटती
गीत सुनकर के हवा का
पत्तियाँ ज्यों डोलती हैं
सुन सके कोई इन्हें तो

दर्प की भौहें तनीं जब
आसमाँ से हेरतीं हैं
तब झुकीं पलकें विनय कीं
दर्प का मन फेरती हैं
आसमानों को ज़मीनी
ताक़तें ही तौलतीं हैं
सुन सके कोई इन्हें तो

कालिखें इन कारखानों
की नहीं आवाज़ करतीं
नालियाँ भी चुपके-चुपके
खेल क्या-क्या कर गुज़रतीं
वो हवाओं में ज़हर तो
ये नदी में घोलती हैं
सुन सके कोई इन्हें तो

१० मई २०१०

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