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दीप धरो
वर्ष २०११ का दीपावली संकलन

आडम्बर के उत्सव



 

बिजली की बेलें जलाने की धुन में
डिबियों से सम्वाद करना ही भूले !

दो वक़्त रोटी की आस में भटकते हैं
दिन-रात खटते हैं फिर भी खटकते हैं
हम कैसे नागर हैं बस फूटी गागर हैं
प्यासों को गुड़धानी पानी से बचते हैं
सावन-सी पलकों के मेघ ही सुखा डाले

पथरीले दड़बे सजाने की धुन में
रिश्तों को आबाद रखना ही भूले !

अतिवादी शैली है उच्छृंखल जीवन है
हवसों को हरियाता पाखंडी चिंतन है
उत्सव के खातों में शुभ-लाभ गिनते हैं
कोरा आडम्बर है लंकाधिप हनते हैं
स्नेह-भरे भावों के दीप ही बुझा डाले

कंचन की जगमग जुटाने की धुन में
तिमिरों का उन्माद हरना ही भूले !

--अश्विनी कुमार विष्णु

२४ अक्तूबर २०११

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