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४. ११. २०१३

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मौत का कुआँ

           

 

दर्द को पकाता है,
बाँसुरी बजाता है
बस हसीन सपने को वो गले
लगाता है।

मेला है दो दिन का
फिर होंगे फाके
तीनों बच्चे उसके
हैं बड़े लड़ाके
चोट जब उन्हें लगती खूब
मुस्कुराता है।

जाने कब टूट जाए
साँसों की डोरी
दुनिया का मेला
है उसकी मजबूरी
कभी कभी गिरता है कभी
लड़खडाता है।

गोल गोल घूम रहा
बेबस मन मारे
पूरा ही कुनबा है
उसी के सहारे
मौत के कुँए में वो साइकल
चलाता है।

- भारतेन्दु मिश्र

इस सप्ताह

गीतों में-

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भारतेन्दु मिश्र

अंजुमन में-

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ओम नीरव

छंदमुक्त में-

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सतीश जायसवाल

कुंडलिया में-

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 राजेन्द्र बहादुर सिंह राजन

पुनर्पाठ में-

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विशाल मेहरा
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पिछले सप्ताह
दीपावली विशेषांक में

गीतों में-
मधु शुक्ला, ओम प्रकाश तिवारी, कृष्णनंदन मौर्य, नवीन चतुर्वेदी, परमेश्वर फुँकवाल, रविशंकर मिश्र रवि, लक्ष्मीनारायण गुप्ता, शंभुशरण मंडल, शशिकांत गीते, शशि पुरवार, सौरभ पांडेय अंजुमन में- अमित दुबे, अश्विनी कुमार विष्णु, उमेश मौर्य, कल्पना रामानी, संजू शब्दिता, सुरेन्द्रपाल वैद्य दोहों में-ऋषभदेव शर्मा, ओमप्रकाश नौटियाल, रमेश शर्मा, सत्यनारायण सिंह, सरस्वती माथुरछंदमुक्त में- अनिता कपूर, उर्मिला शुक्ल, विपिन चौधरी। कुंडलिया में- ज्योत्सना शर्मा, रघुविन्द्र यादव, त्रिलोक सिंह ठकुरेला। सवैया में- आचार्य संजीव सलिल (वीर छंद), चिदानंद शुक्ल

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   

 

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