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११. ५. २०१५-

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रहे जब तक पिता

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रहे जब तक पिता, घर
जैसा रहा घर

एक चौका-एक चूल्हा
एक आँगन-एक छत
एक जैसे मन सभी के
मुँह अलग पर एक मत

एक डोरी से बँधे थे
धरा-अंबर

उत्सवों जैसा सदा था
उत्सवों का आगमन
दमकती थी द्वार पर
उल्लास की उजली किरन

स्वर अभावों का कभी
ठहरा न पल भर

शीश पर वट-बृक्ष–सी
छाया हमेशा थी सघन
शीत-वर्षा–घाम सब में
घुली थी स्नेहिल-छुवन

डर अँधेरों का हमेशा
रहा डर कर

- जय चक्रवर्ती

 

इस सप्ताह

गीतों में-

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जय चक्रवर्ती

अंजुमन में-

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राजेन्द्र वर्मा

छंदमुक्त में-

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शुचिता श्रीवास्तव

छोटी कविताओं में-

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जयप्रकाश मानस

पुनर्पाठ में-

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स्वयं दत्ता

पिछले सप्ताह
४ मई २०१५ के अंक में

गीतों में-

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राजा अवस्थी

अंजुमन में-

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बाबूलाल गौतम

छंदमुक्त में-

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अजामिल

कुंडलिया में-

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साधना ठकुरेला

पुनर्पाठ में-

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स्वदेश

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी