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अनुभूति में आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ-

नई ग़ज़लें-
झाँकता है
मंज़िल पे ध्यान
मंज़िलें क्या हैं
याद आता है
सारा बदन

अंजुमन में-
अगर सफ़र में
ठीक हुआ

तुम सोच रहे हो
पिया को जो न मैं देखूँ
बूढ़ा टपरा
मैंने देखा है
ज़रा पाने की चाहत में
झिलमिलाते हुए दिन रात
ये सोचना ग़लत है
हम तो ये बात जान के
हरेक लम्हा

संकलन में-
ममतामयी-अम्मा
पिता की तस्वीर-बाबू जी

दोहों में-
सात दोहे

  तुम सोच रहे हो

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक,
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक।

टूटे हुए ख्व़ाबों की इक लंबी कहानी है,
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक।

दिल आम नहीं करता, एहसास की खुशबू को,
बेकार ही लाए हम, चाहत को ज़ुबानों तक।

लोबान का सौंदापन, चंदन की महक में हैं,
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक।

इक ऐसी अदालत है जो रूह परखती है,
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक।

उम्मीद के साए हैं, हम आस बिछाए हैं,
इस दिल के दरीचे से, आँखों की मचानों तक।

हर वक्त, फ़िज़ाओं में महसूस करोगे तुम,
ये प्यार की खुशबू है, महकेगी ज़मानों तक।

२४ मई २००५

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