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अनुभूति में चन्द्र शेखर पान्डेय ‘शेखर’ की रचनाएँ—

अंजुमन में—
आदमी को
एक सिक्का दिया था
कभी मंजर नहीं दिखते
जब प्रिय मिलन में
मुझे इश्क का वो दिया तो दे

 

कभी मंजर नहीं दिखते

उजालों से अँधेरों के कभी मंजर नहीं दिखते।

वफा की राह में मुझको ये संग-ए-दर नहीं दिखते।
मुझे इन इश्तिहारों के कभी मंजर नहीं दिखते

हुई नीलाम खुश्बू याँ गुलों के खिलने से पहले,
चमन में आजकल भौंरे तभी अक्सर नहीं दिखते।

हमारी संगसारी को जहाँ बेताब है कितना
हमारी राह में दो चार भी पत्थर नहीं दिखते।

अँधेरों से उजालों के मैं मंजर देख लेता हूँ,
उजालों से अँधेरों के कभी मंजर नहीं दिखते।

कभी वो हममकातिब थीं, रगों में हिन्दवी के याँ
उसी हिंदी उसी उर्दू के वो लश्कर नहीं दिखते।

कहाँ हो गुम बहिश्त-ओ-खुल्द के गम में मेरे यारा
ये कैसे हो गये हो तुम , मेरे 'शेखर' नहीं दिखते।

१३ अक्तूबर २०१४

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