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अनुभूति में गुलज़ार की रचनाएँ -

अंजुमन में-
इक नज़्म की चोरी
जिस्म
मुझे अफ़सोस है
वक्त
सादा कैनवस पे उभरते हैं बहुत से मंज़र

  मुझे अफ़सोस है

मुझे अफ़सोस है सोना
कि मेरी नज़्म से हो कर गुज़रते वक़्त बारिश में
परेशानी हुई तुम को

बड़े बे वक़्त आते हैं यहाँ सावन,
मेरी नज़्मों की गलियाँ यूँ भी अक्सर भीगी रहती हैं
कई गढ़ों में पानी जमा रहता है,
अगर पाँव पड़े तो मोच आ जाने का ख़तरा है।

मुझे अफ़सोस है लेकिन
परेशानी हुई होगी कि मेरी नज़्म में कुछ रौशनी कम है
गुज़रते वक़्त दहलीज़ों के पत्थर भी नहीं दिखते
कि मेरे पैरों के नाखून कितनी बार टूटे हैं
हुई मुद्दत कि चौराहे पे
अब बिजली का खंबा भी नहीं जलता
परेशानी हुई तुम को-
मुझे अफ़सोस है सचमुच।

४ मई २००९

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