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अनुभूति में प्रभा मजूमदार की रचनाएँ

छंदमुक्त में दो लंबी कविताएँ—
इन दिनों
बयान जारी रखते

 

बयान जारी रखते

अलगू चौधरियों और
जुम्मन शेखों सुन लो।
पंच परमेश्वर सच नहीं कहा करते।
जबकि वे देखते हैं हर दिन
सींग लडाते साँडों को
आवारा कुत्तों की जमात को
शेर की खाल में घूमते सियारों को
रंग बदलते गिरगिटों को
आँसू बहाते मगरमच्छों को।
बगुलों की समाधियों
बहेलियों के पसरते जालों को
चलचित्र की रील की तरह।

हर दिन वे सुनते है
व्यवस्था के डंडे की टनकार
जो अक्सर पडती है छोटी मछलियों
हिरणों या खरगोशों पर।
उन्मत्त राजाओं के फैसलों
फरमानों की आरी से
कटते जा रहे
सभ्यताओं के घने जंगलों का रुदन।
विश्वास और सद्भावों के उदात्त पहाडों को चीर कर
लूटी जा रही सम्पदाओं को।
मलबों मे बदली जा रही
संस्कृति की नदियों की क्षीण होती कराहों को।
कानून की किताबों के
पन्ने पलटते हुए वे सुनते है
निरीहों के आर्तनाद।
आक्रांताओं के अट्टहास
सन्नाटों में उडती
जुल्म ज्यादती की कहानियों
भोंपूओं के शोर।

वे जानते हैं किसी भी घटना को
सुर्खियों में लाने
अथवा सुर्खियों से बाहर
कर दिये जाने के पीछे के कारण
घटनाएँ नहीं उससे जुडे लोग होते हैं।

अधूरे साक्ष्यों और बदलते
बयानों की वजह से
टूटती और जकडती हैं
किसी के हाथों में
हथकडियाँ।

यों भी इतना आसान कहाँ है
सच कहना।
प्रलोभनों की चमकदार
घुमावदार सीढियों से गुजरते हुए
फिसलन भरी गुमनाम घाटी
खींच सकती है कभी भी।

बयान देने से पहले
वह जायजा लेता है
सभाकक्ष का।

आँकता है भीड़ की शक्ति
संख्या अनुकूलता।
न्यायाधीशों की निष्पक्षता
अथवा प्रतिबद्धता।
वकीलों का काइयाँपन।
अपने तर्क की सामर्थ्य
विश्वसनीयता का अहसास
खड़े रह सकने का आत्मविश्वास।
तराजू के पलडों में
तौलता है वह अवसरों और प्रतिबद्धताओं को।
धमकी और प्रलोभनों को
सम्भावित निष्कर्षॉ को।
सच और झूठ के बीच की
महीन रेखा का विस्तार
मापता है।

बयान देने से पहले
वह खुद को टटोलता है
कि कितना बयाँ करना है
अपने बयान में।

६ अक्तूबर २०१४

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