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अनुभूति में डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा की रचनाएँ-

अंजुमन में-
कंचन की खंजन की
तू क्यों सूली पर चढ़ा
मेहराब थी जो सिर पे
वो मन के कितना करीब था

  तू क्यों सूली चढ़ा जा

तू क्यों सूली चढ़ा जा रहा, क्या तू कोई ईसा है?
यह क्या कम है, कानों में दुनिया उंडेलती सीसा है!

लोग तरक्की करते-करते कितने आगे निकल गए,
तू क्यों कहता दौर हमारा गुज़री हुई सदी-सा है।

कल तक तो वह चेहरा था कश्मीर की घाटी-सा सुंदर,
अब वह चेहरा चक्रवात में उजड़ा हुआ उड़ीसा है।

तू उस ईश्वर की तलाश में कहाँ-कहाँ पर भटक रहा,
सच तो ये है, तेरा घर ही काबा और कलीसा है।

बिस्मिल्ला ने शहनाई में कैसा जादू घोल दिया,
फिर बरसों के बाद अचानक ज़ख़्म पुराना टीसा है।

रौंदे हुए शहर के लोगों के मेले क्या, उत्सव क्या,
रातें पहियों ने कुचली हैं, दिन चक्की ने पीसा है।

एक हवा का झोंका है वो, तपते हुए मरुथल में,
इस रेतीले महानगर में, उसका नाम नदी-सा है।

५ अक्तूबर २००९

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