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कुछ साजिशों से जंग है
ग़ज़ल में दर्द की तासीर
सब्र उनका भी
सर बुलन्द कर गया
हर गाम पर

 

हर गाम पर

हर गाम पर वो गर्द उड़ाते चले गए
हम बेबसी का दर्द छुपाते चले गए।

ख्.वाबों के गुलसितान में ये दर्दे का बयाँ
हम ज़िन्दगी का कर्ज़ चुकाते चले गए

इक साँस माँगती रही रिश्तों की रहबरी
हम रोटियों की शर्त निभाते चले गए

कुछ पत्थरों की देह से लिपटे रहे हुक़ूक
हम आदमी का फ़र्ज निभाते चले गए

दरिया की धार पर रहा मुर्दों का फैसला
हम तश्नगी का मर्ज़ बढ़ाते चले गए

२४ नवंबर २०१४

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