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नई रचनाओं में—
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जाड़े का हाइकु¸ प्रियतमा के लिए¸ महानगर के हाइकु¸ गाँव के हाइकु¸ संदेश

कविताओं में—
चालू आरे नंगा नाच
भस्मासुर जा रहा
हँसो गीतिक हँसो
होली बीती

  चालू आहे नंगा नाच

सिसक रहे हैं सारे साँच।
चालू आहे नंगा नाच।

द्रौपदी ने खुद फेंके चीर।
दिखा रही बेधड़क शरीर।
पांडव लगा रहे खुद दाम।
कौरव व्यर्थ हुए बदनाम।
नंगई अब तो रही न रोग।
निकले हम्मामों से लोग।
मन पर ताला तन पर काँच।
चालू आहे नंगा नाच।

घपलों-घोटालों का राज।
देश के सेवक धंधेबाज़।
भैंस चराते थे जो लोग।
अब उनको सारे सुख भोग।
खादी उनकी सदा सफ़ेद।
खुलता नहीं कभी भी भेद।
अपनी सत्ता, अपनी जाँच।
चालू आहे नंगा नाच।

चाहे जितने कर लो खून।
रक्षक है अपना कानून।
अदालतों की मुश्किल राह।
मिलता कोई नहीं गवाह।
लोकतंत्र में चारों ओर।
चीख-कराहों का है शोर।
गुंडे खंभा नंबर पाँच।
चालू आहे नंगा नाच।

नंगई के हैं रूप अनेक।
नंगई बनी खुदा-सी एक।
नंगे हैं सब मॉडल अपने।
नंगे बेच रहे हैं सपने।
नंगे करते संस्कृति तय।
नंगे दिखलाते हैं भय।
आ पहुँची है दूर तक आँच।
लोग रहै हैं मुहुरत बाँच।

१६ दिसंबर २००५

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