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अनुभूति में अजय ठाकुर की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अब तुम बदल गए हो

काश मेरा ये प्रेम तुमसे होता
खामोश जुबा
सिंदूरी सी याद

 

खामोश जुबाँ

सिंदूरी से सपने
नागपाश सा अरमान
लपलपाती डेहरी सी आँखों पे
जैसे कारवाँ पंछियों का
मेहमानों की तरह
आके ठहर गया हो
और फिर किसी अंजुमन
के झरोखों से झाँकता क्षितिज
तेरे यादों का सवेरा
बन के कहीं से
निकल आया हो

ऊँघता मेरे कदम
ख्वाबों की ताबीर की छतों से
सुकून की लाठी थामे
दूर से उसको निहारता
खुद में बुदबुदा रहा हो
कि हथेलियों की छोटी सी
लकीरों की
क्या यही उग्रता है
जिनके एहसासों को
खामोश जुबाँ
तेरी शक्ल में
किस्मत कहती है ..

२७ मई ३०१३

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