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अनुभूति में अरविंद कुमार की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
आग का दरिया
ज़िंदगी
मैं और मेरी कविता
यह शहर बेजुबान क्यों?

शहर के बीच

  शहर के बीच

आओ, चलो कहीं बैठ कर वक्त जाया करें
और ज़िंदगी के जिस्म को उघार कर
उसकी बखिया उधेड़ दें

आओ, चलो किसी सुनसान सड़क पर चलते हुए
मौसम का आनंद लें
और कल्पना के घोड़ों पर सवार हो कर
आसमान को अपनी मुट्ठी में कर लें

आओ, चलो किसी लाइब्रेरी में बैठें
और अनर्गल बातों से तोप दें किताबों को
वादों, सिद्धान्तों और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ायें
और आस्तीन चढ़ा कर
शोर मचाते हुए भीड़ में तब्दील हो जाएँ

आओ, चलो किसी रेस्तराँ में बैठें
और सिर जोड़ कर भविष्य की योजनायें बनायें
सिगरेट के खाली डिब्बों को फाड़कर
उन पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचें
और कोने में बैठी अकेली लड़की को देख कर
बेहया हँसी हँसें
देश, दुनिया, अमीरों और राजनेताओं को कोसें
और चाय के गिलासों में डूब कर तूफ़ान खड़ा कर दें

आओ, चलो चौराहा-दर-चौराहा होते हुए घर लौट चलें
और चारपाई पर लेट कर
किसी आसमानी देवता की प्रतीक्षा करते हुए
जम्हाई लें
और बदलाव की अगवानी करें

१७ फरवरी २०१४

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