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अनुभूति में आशा सहाय की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
आहत युधिष्ठिर
खोलो मन के द्वारों को अब
निर्वाक
प्रथम सावन
मैं सड़क हूँ

 

निर्वाक

शब्दों का टोटा हो गर तो
महाकल्पना छिन जाती है।
फिर महा शून्य का महाविवर
निर्वाक मनुज छटपट छटपट।
ज्यों महाज्वार
विलयन को हो बस विवश करुण
करुणा के सागर में अपनी ही
आँखें तब भींग जाती हैं।

जब महारास का बल होता
जब महानाश का भय होता
आनन्द अति, भय अति प्रबल
नव भाव समुद्र उद्बुद्ध हो जब
मन ढ़ूँढ़ ढूँढ़ व्यथित थकता
गर शब्द नहीं मिल पाते तो।

शब्दों से ही यह विश्व प्रगट
वर्तमान भूत कल्पित भविष्य
करना हो गर सम्मुख उसको
हो जाता पूरा विश्व चकित।
अभिधेय या कि अभिप्रेत अर्थ
शब्दों के महासमर से जब
हम ढूँढ़-ढूँढ़ थक जाते हों
कल्पना ठूँठ हो जाती है
तब भाव बिखर जाते हैं खुद

हम हो जाते जड़ मूढ़ स्वयं
कल्पनाएँ जब छिन जाती हैं

शब्दों की शक्ति अतुल प्रवर
यह टूट फूट जब जाती है
हम शक्तिहीन, कर्तव्यविमूढ़
स्वयं के तीरों से छिन्न-भिन्न
वेदना भरित
करुणा-सागर में अपनी ही
आँखें तब भींग जाती हैं।
शब्दों का टोटा हो गर तो
महाकल्पना छिन जाती है।

२० अप्रैल २०१५

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