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अनुभूति में आशीष भटनागर की 
रचनाएँ — 

छंदमुक्त में-
साँस 
प्यार
प्रिय मन
डोरेस्वामी की वीणा सुनते ही
उत्तरकाशी १९९१

 

डोरेस्वामी की वीणा सुनते ही

बरसात के पानी से
मुँह धोता सूरज,
जैसे घुल–घुल कर
धुल–धुल कर,
बूँदों में
टप्प–टप्प
टुपुर–टुपुर
टप–टप
टपक रहा है।

दिन पिघल रहा है मोम–सा,
शाम की राख ढकी आग में।
आसमान भूखे बाज़–सा झपट कर

धरती पर लपका है
और धरती एक चुहल–सी
हल्की–सी दौड़ कर
हंसों–सी उड़ गई है।

चाँद, बादलों के तकिए में मुँह छिपा
कालिदास का मेघदूत पढ़ रहा है।

हवा में 
तैरती आ रही हैं मछलियाँ,
तेरी बाहों–सी
मेरे गले से लिपट गई हैं।

ये दिन है
या रात?
चाँदनी है या धूप?
मैं हूँ
या मुझ जैसी तुम?
या वीणा पर अँगुलियों–सी,
थिरक रही हो तुम
और मृदंग पर
धक–धिक–धक
धड़क रहा है मेरा दिल?

हमीर कल्याण?
ना. . .
भैरवी,

याने अभी तक जो जिया श्रम था,
सृष्टि तो
अब होनी शुरू हुई है,
दूर क्षितिज की मुँडेर से
लो, सुबह झाँक रही हैं
सुबह
मेरे सपनों पर
सपनों संग नाच रही है।

९ सितंबर २००२

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