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अनुभूति में गुरमीत बेदी की कविताएँ—

अपने भीतर
कवि के भीतर
रेत के घरौंदे
सफ़र पर
हो सके तो

 

हो सके तो

तुम्हारे पास जितने भी रंग हैं
और जितनी कल्पनाएँ
तुम इस कैनवस पर उड़ेल दो इन्हें
में कोई एक रंग चुनकर
किसी सपने में भर लूँगा

मैं जब भी खुद को पाऊँगा किसी वीराने में
तुम्हारी किसी कल्पना की उँगली थाम
शामिल हो जाऊँगा उस उड़ान में
तब मैं अकेला नहीं हूँगा
मेरे साथ होगी तुम्हारी पदचाप
तुम्हारी हँसी-ठिठोली
तुम्हारी स्वर लहरियाँ
और सबसे बढ़कर तुम्हारी धड़कनों का संगीत

जब भी किसी घाटी के शिखर पर चढ़ते हुए
तेज हवाएँ मुझे नीचे धकेलने को दिखेंगी आतुर
मैं इस कैनवस पर से ही एक उड़नखटोला उठाऊँगा
और हवा में तैरते हुए शिखर पर जा विराजूँगा

जब भी मुझे लगेगा
मौसम के झंझावातों ने
फीके कर दिए हैं धरती से तमाम रंग
इस कैनवस से उठाकर रंग
मैं हवा में बिखेर दूँगा
इसी कैनवस से उठाकर खुशियाँ
मैं फुटपाथों पर बसी झुग्गी झोपड़ियों में जाऊँगा
जहाँ बरसों से हवा में नहीं गूँजा कोई गीत
अगर तुम इस कैनवस पर
पंछियों का सदाबहार राग
और चहचहाहट भर दोगी
तो हवाएँ कभी नहीं होंगी बोझिल
हो सके तो!

16 फरवरी 2007

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