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दीवारें
प्रवीर जहाँ-जहाँ जाता है
दीवार खड़ी पाता है
लौटता है
दूसरी दीवार की तरफ
पीछे शून्य निकल आता है
आमने-सामने खड़े देख पाता है
एक ईंट दादा ने रखी
दो-चार पिता ने
दस दोस्तों ने चार-छह अध्यापकों
प्राध्यापकों ने
चिनती गई बाबुओं अधिकारियों
चपरासियों बसचालकों
विधायकों से
बीच-बीच किताबें लगी थी
मोटी-मोटी
गुस्सैल दादी ने खीझकर
डरी-डरी माँ ने
बहनों ने
काँपते हाथों
करनी पकड़कर
टीप लगाई थी ईंटों में
झाग आँसू पसीने से
पक्की बनाई जमावट
पत्नी और बच्चों ने रीझकर
लेपा था सीमेंट
समतल किए थे खुरदरे किनारे
प्रवीर अपने सपनों की चोट से
छेद करना चाहता है
सिर भर निकल पाए
तो पूरा वजूद पार
निकालना चाहता है
दीवारें घर बनाती हैं
और दफ़्तर
स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय
डिब्बेदार रंगमंच
कंप्यूटर का कमरा
सड़कें भी दीवारें बन जाती हैं
घुमरैली
लौट-लौट लानेवाली
सड़कों की भूलभुलैया
प्रवीर जाता है
लौटता है
सामने दीवार खड़ी पाता है
पीछे शून्य निकल आता है।
२५ फरवरी २०१३ |