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इन्विजिलेशन
कुहनियों ने बना दिए निशान
गोल दो
मेज की धूल में
कमीज ने, पैंट ने, साड़ी ने सोख लिया
कुरसी का मटमैला पाउडर।
बीड़ी पी रहा सफाई कर्मचारी
स्टाफ रूम में पंखा चलाकर
टाइपिस्ट निरीक्षण कार्य कर रहा
प्राध्यापक बरामदे में ऊँची आवाज
राजनीति में बझा
विद्यार्थियों की कॉपियाँ छप गई डेस्कों पर
हिलती टूटी कुरसियाँ बदलते
उत्तर-ही-उत्तर उँड़ेल रहे।
कब उठेंगे मन में प्रश्न
कब आएगा तूफान
यह जवान खून कब बौखलाएगा?
या इसी धूल से पैदा होगा दीमक
लगेगा इनके दफ़्तरों की फाइलों में कल?
क्या कल जिस संघ ने
दिलाया था वाजिब अधिकार
उसी के डंडे से डर
चुप रहेगा अफसर, मातहत-
हर संघहीन?
डूबेगी-ही-डूबेगी क्या नाव
रेत के समुद्र में
कोई नहीं होगा खड़ा कहने-
पा लिया
अब देना शुरू करें
अपच हो रहा है तनख्वाह की रोटी से?
यह धूल फेफड़ों में जम रही
मेरी संतान खाँस रही
उसी कुरसी का टूटा पाया
गिरा रहा बेटे को
जिसमें मैंने कील नहीं ठोकी थी
मेरी बेटी की उगली चुन्नी
मैली हो रही
झाड़न नहीं उठाया था मैंने सवाल नहीं किया था बेटी-बेटे ने
उत्तर नहीं दिया था मैंने खुद को!
पहली मई का जश्न भर
चलता रहेगा क्या हमेशा?
निगलने-उगलने-निगलने में
घंटियाँ बजती रही थीं
विद्यालय-विश्वविद्यालय में
गले में स्वर नहीं था
भरे गला गाया न था
किसी जवाबदेही का कोई बाजा बजाया न था।
अब मैं किससे सवाल करूँ
किस पिता को चौराहे नंगा करूँ
फर्श पर बर्फ की सिल्ली घसीट
पानी ठंडा कर पिलाती
किस माँ की सेहत की
सुख की
दवा करूँ?
२५ फरवरी २०१३ |