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आज नहीं मैं कल बोलूँगी
किस कदर मासूम होंगे दिन
दीवार पर तस्वीर की तरह
पैंतीस साल
यह जो मैं दरवाज़ा

  पैंतीस साल

पैंतीस साल मैंने घर चलाने की कोशिश की
मेरा रिपोर्ट कार्ड कभी संतोषजनक नहीं रहा।
अपनी तरफ़ से न कभी नागा की, न इतवार माँगा
पर क्या करूँ
नम्बर देने वाला मुखिया था सख़्त और कंजूस।
इतने साल
या इससे बहुत कम समय में
मैं साइकिल चलाना सीख सकती थी
या स्कूटर या कार।
मेरी नज़र एकदम दुरूस्त है।
अरे इतने समय में तो मैं हवाईजहाज़ भी चला लेती
पर
मुझ पर तो सनक सवार थी,
बदरंग रिश्तों पर नित नया रंग-रोगन चढ़ाने की
फटी चादरों में थिगलियाँ लगाने की
'दोपहर का भोजन' की सिद्धेश्वरी की तरह
सबको सिहा सिहा कर खिलाने की
इससे बहुत कम मेहनत में मैं
स्कूल में बच्चों को पढ़ा लेती
दफ्तर में सैकड़ों फाइलें बढ़ा देती
अस्पताल में रोगियों को दवा खिला लेती
गाँव की औरतों को 'कमला' लिखना सिखा देती।
पर मुझ पर तो नशा चढ़ा था
अच्छी गृहणी कहलाने का।
तुमने मिथक में इतिहास मिलाया
उस पर धर्म का छौंक लगाया
और चूहा मार दवा सा मेरे गले के नीचे उतार दिया
मैं जीने लगी वेद, पुराण और मनुस्मृति।
मुझे सीता सावित्री, उमा और अनुसूया की तरह बनना
अधिक भाया।
मैंने शकुंतला जितना जोखम भी नहीं उठाया,
लक्ष्मीबाई के मैंने चेतना से हकाल दिया।
मैं परम्परा के सुरक्षा चक्र में समा गई
नेतृत्व की जगह मैंने समर्थक चुना
और केन्द्र की जगह नेपथ्य।
संवाद की जगह सहमति ने ले ली
सत्या की जगह मैं प्रियंवदा बन गई।
मैं सीता की तरह सताई जाने को सौभाग्य समझने लगी
पार्वती की तरह
मैं बौड़म पुरुषों को परमेश्वर मान बैठी
गुमनामी और गुलामी मुझे गले-गले डूबोती गई
मैं फिर भी नहीं चेती
जड़ता के आनंद में जी भर कर लेटी
घर था हम दोनों का
पर मैंने इसे गोवर्धन-सा उठाया
रच रच पकाया, कभी खाया, कभी नहीं खाया।
मैं भजन गाती रही,
कभी इसकी, कभी उसकी खैर मनाती रही।
इससे बहुत कम उपक्रम में मैं
अपनी बोद्धिक क्षमता सिद्ध कर लेती
तर्कशक्ति तराश कर निर्णय कर लेती।
पर मैंने यह सब नहीं किया।
जीवन एक सरल रेखा में जिया।
अब जब तुमने मुझे
खांटी घरेलू औरत के खिताब से दाग दिया है।
मुझे क्या करना चाहिए!
द्रोह की दुन्दुभि बजाने में
सचमुच विलम्ब हो गया
मस्तिष्क की सामर्थ्य पर
मैंने कभी विचार नहीं किया
कोख की कूवत पर प्रतिपल गर्व किया।
हर नौ माह में
मैं जनती रही, रचती रही,
असली सवालों से बचती रही।
पर मेरी बेटियाँ
पहचानती हैं मेरी गलतियाँ।
वे चिल्ला रही हैं पूरे जोर से
सड़क पर,
संसद में,
सभाओं में,
उनसे नहीं होगी भावुकता की भूल।
वे बदल देंगी सारी व्यवस्था समूल।
उनकी माँग है
बराबर का हक
बराबर का नाम
बराबर की शिक्षा,
बराबर का काम।
वे मेरे सीमित सपनों में संशोधन लाएँगी
और मेरी चुप्पी को निर्भय उद्बोधन में बदल देंगी।

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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