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पापा प्रणाम (दो कविताएँ)
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आज नहीं मैं कल बोलूँगी
किस कदर मासूम होंगे दिन
दीवार पर तस्वीर की तरह
पैंतीस साल
यह जो मैं दरवाज़ा

  पापा प्रणाम (दो कविताएँ)

एक

जब तक थे आप मेरे साथ
मेरा कोई सवाल अनुत्तरित नहीं था,
कोई भी बवाल बोझ नहीं था।
आप मेरी मुश्किलें झट से निपटाते थे
और फिर जैनेंद्र के जीवन-दर्शन पर
एक लंबी बहस छेड़ ताज़ादम हो जाते थे।
आपने मुझे संवाद और विवाद की शालीनता सिखाई
आपने सहमति की सीमा,
असहमति की सामर्थ्य समझाई।
आपने मुझे भारत भर के नगर दिखाये
पापा
आप हर मोड़ पर मेरे साथ आए।
यह कलम आप ही ने तो थमायी थी मुझे।
जब शिशु पीत होंगे दूध
आपने घुट्टी में पिलाया साहित्य।
आप दुनिया से निराले पिता थे,
आपसे पास बैठना
एक उपनिषदीय अनुभव से गुज़रना था।
कृष्ण काव्य परंपरा से लेकर कोलिन विल्सन तक
कोई भी विषय आपकी रुचि का प्रसंग था।
आपको पल-पल प्रश्नाकुलता घेरे रहती थी।
आप क्यों और कैसे से लबालब भरे थे।
आपके सवालों पर सन्न रहना
मेरी सबसे प्रिय पराजय थी।
आप स्वयं सवाल करते
और हँसते-हँसते समाधान भी बताते।
इस तरह आप प्रतिदिन मेरे नायक बनते जाते।
यह आप ही का बूता था
कि आपने स्वयं को अनंत में जाते
क्षण-क्षण देखा और महसूस किया।
गहन चिकित्साकक्ष में आपने कहा,
'सिस्टर मेरी साँस इस वक़्त ऐसे फूल रही है
जैसे पी.टी. उषा की फूलती होगी चार सौ मीटर दौड़कर।'
आपने कहा, 'डॉक्टर मैं तो उड़ रहा हूँ
पतंग की तरह आसमान में, विमान में।'
पापा
आप कितनी आसानी से
व्यक्त करत लेते थे अपने आपको।
मैं आज भी संघर्ष करती हूँ
काग़ज़ पर कलम से।
लिखने से पहले बहुत कुछ पचा, निगल जाती हूँ।
कितना कुछ कहने में संकोच कर जाती हूँ।
क्या मैं कभी आपके आस-पास भी पहुँच पाऊँगी
साहस और अभिव्यक्ति में
ज़रूरी रिश्ता बना पाऊँगी।
या सिर्फ़ आपकी बेची के रूप में प्रतिष्ठा पाऊँगी।
मैं जानती हूँ आप इस संशय पर
असहमत हो जाएँगे
और सोने से पहले
अहं ब्रह्मास्मि पर लंबा चौड़ा वक्तव्य दे जाएँगे।
लेकिन मैं कुछ भी लिख डालूँ
मैं कृतिकार नहीं, मैं कृति हूँ,
पिता तुम्हारी मैं आकृति हूँ।

दो

जाने कितने मौके आए
जाने कितने अवसर,
जीवन के धुँधले अँधियाले मानचित्र पर
राह दूसरों को दिखलाना दूर
न अपनी राह दिखी जब दूर-दूर तक।
ऐसे में तब
एक सिपाही ड्यूटी देता रहा रात भर
मेरे पापा!
वह ला-ला कर ढेर लगाना
पुस्तक काग़ज़।
नए पुराने ग्रंथों की नित अलख जगाना।
इसे मानना उसे नकारना
रात-रात भर लिखना पढ़ना
दिन भर बहसें,
दफ़्तर जाकर दफ़्तर का दानव पछाड़ना।
जब-जब मैं हताश होती थी
नहीं टूटती जग के आगे
उनके पास पहुँच रोती थी।
तब वे कहते,
'क्या मैं मानूँ मैंने एक पलायनवादी, दब्बू, दुबकी,
चुप चींटी को जन्म दिया है?
दायित्वों के दावानल में खड़ी हुई हो
क्यों रोती हो!
चयन का वैभव तुम्हारा था तुम्हारा है
छो़ड़ दो भय भीति शंका,
रवि तुम्हारा है।
तुम नहीं हो देवि जो संतुष्ट सब जन हों
कुछ जियेंगे मुँह फुला कर दुष्ट दुर्जन जो।
अपना मन निर्द्वंद्व छोड़ दो रचनाओं में
तभी तुम्हारी गिनती होगी प्रतिभाओं में।
ये दो बेटे या दो प्रहरी
काटेंगे तेरे कर्तव्यों की दोपहरी।
उनसे मिल कर लगता ऐसे
जैसे सारे तीर्थ हो गए
कितने भाग्यवान थे पापा
जिये हमेशा आन-बान से
और अंत में
अपनी पूरी अकड़-धकड़ के साथ सो गए।
मैं बैठी थी छह सौं पैंतीस मील दूर जब
अंतिम बार पुकारा उनने।
मेरे मन में अब भी अंधड़
मचा हुआ है पापा की यादों का
सुख के वे दिन चार
शेष यह जीवन है यादों का।

७ सितंबर २००९

 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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