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हँसना याद नहीं

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हँसना याद नहीं

हँसना याद नही मुझे कब हँसा था पहली बार
आँख खुली तो अट्ठहास करते पाया
नफरत-तंगी और मानवीय-अभिषाप की ललकार।
हँसना तब भी अपराध था आज भी है
शोषित आम आदमी के दर्द पर
ताककर खुद के आँगन की ओर
अभाव- भेद से जूझे कैसे कह दूँ
मन से हँसा था कभी एक बार।
पसरी हो भय-भूख जब आम आदमी के द्वार
नही बदले हैं कुछ हालात कहने भर को बस है
तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से
वह भूख-भय भूमिहीनता के अभिषाप से व्यथित
माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार-बार।
सच कह रहा हूँ
हँस पड़ेगा षोशित आम-आदमी जब एक बार
सच तब मैं सच्चे मन से हंसूंगा पहली बार...

१४ जून २०१०

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