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पुलिस का साइरन

पुलिस का साइरन तो कोई कविता का विषय नहीं
ठीक है, कि अब लिखित रूप से
उसका होना परिभाषित हो गया है
आपके लिए और आपके साथ
राजधानी की पुलिस का कम से कम और सबसे ज़्यादा
वह अब नागरिकों का अपना पुलिस बल है
घोषित रूप से नागरिकों की ओर
पुलिस अब सत्ता की नहीं
पुलिस अब कभी कभार ही करती है लाठी चार्ज
नागरिकों की भीड़ भी
काफी बेकाबू हो सकती है
चैतन्य, जागरूक और सही भी
जबकि उसी के भीतर घटी होती हैं
सारी दुर्घटनाएँ
ठीक है कि थाना असुरक्षित भी है
और बदनाम भी
अंदरूनी इलाकों में
कहते हैं, पुलिस के पास अशेष गोलियाँ हैं
नक्सलवादी कौन हैं
ये एक बड़ा सवाल है
लेकिन कैसे घरों के भी समय असमय से
ताल मिलाकर बजता है
पुलिस का साइरन
परेशानी का विषय
और अवाक करने वाला सवाल है...

१ दिसंबर २०१५

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