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अनुभूति में पुष्पा तिवारी की रचनाएँ

छदमुक्त में-
आजकल क्या लिख रही हो
आत्मविश्लेषण
कितना जानती हूँ
छोटी छोटी बातें
व्यावहारिक बनने की चेष्टा

`

आजकल क्या लिख रही हो

आजकल क्या लिख रही हो?
मित्र ने पूछा
यथार्थ...
बिना शब्द और स्याही के?
नहीं नहीं...
मुझे पता नहीं था
कि मेरे पास
तरह तरह की रोशनाई है
जिन्हें मैं गाहे बगाहे
उपयोग करती रही।

वह कैसे?
जब कलम पकड़ी
डुबोया उसे स्याही में
लिखा... बहुत लिखा
छपा... पढ़ा भी गया
एक कवि, लेखक सी इतराती मैं
अपने को जीने लगी
उम्र बीत चली थी
डर गुम जाने का नहीं
खुद को जीवित रखने का
भर रहा था
क्या, कैसे प्रश्न दर प्रश्न
बेचैनी?

लगा सब समेट छोटी कर लूँ अपनी परिधि
घूमने में थकूँगी तब
बैठने का सहारा होगा
छोटा करना खुद को आसान नहीं
समेटना उससे भी ज्यादा कठिन
बातचीत में अच्छा है सब
देखने पर
केवल देह ही मुझे इतनी विशाल दिखी
कि फिर डर गई
झुर्री पड़ती सिकुड़ती त्वचा बता रही थी
बहुत सी अंदर की बातें
जिन्हें अम्मा ने कभी नहीं बताया
एक एक अंग अवयव दरवाजा खोले
खड़े थे...
साफ साफ दिख रहा था एक्सरे में
खून की कमी/शक्कर ज्यादा
नमक ने तो पहाड़ रच रखे थे
अपनी सीमा में
लगा देह में भर गई है
कुछ ज्यादा हवा कुछ ज्यादा पानी
जिन चीजों की जरूरत है देह चलाने को
उसे सोखने वाली मिट्टी दिन ब दिन कम हो रही है
कांक्रीट के समुद्र में क्या मैं भी?

जो दिल खुशी में गम में
जोर जोर धड़क
भावनाओं की सूचना आँखों तक देता
आज
बिना बात जरा सा चलने बोलने में थकता
दिल को मात देता मेरा दिमाग
गर्व था मुझे
मुझसे छुपा छुऔअल खेल रहा
देखो तो तुम...

मैं तो यह सब महसूस कर रही हूँ
देखने के लिए अब चश्मे बदलने
पड़ते हैं बार बार
सोचने लगी
समेट लूँगी क्या क्या...
थोड़ा सामान... थोड़ी जरूरतें?

लेकिन खर्च बढ़ चला
क्या करेंगे जब हाथ पाँव नहीं चलेंगे
तभी ख्याल आया
अभी कुछ समय है
भविष्य के लिए
बनाने लगी कागज पर नक्शे
ईंट से ईंट जोड़ने को सीमेंट खरीदी
याद आया
इसी तरह रिश्तों को जोड़ने के लिये
आँखों के पानी से लिखा
परम्पराओं में रहने के लिये
पसीना बहाया
मेरे घर रोज जलते थे बिजली से चिराग
पर मैंने तो घर रोशन करने को
अपने खून से चिराग जलाए
तब मैं अशीषी गई
सराही गईं मेरी कविताएँ
वे छपीं तो नहीं कहीं कभी
लेकिन पढ़ीं हमेशा गईं

६ दिसंबर २०१०

 

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