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अनुभूति में राजन स्वामी की रचनाएँ-

अंजुमन में-
अधूरेपन का मसला
धूप से तप रहे जंगल
बातें

बुझा बुझा-सा है
मुश्किल है

छंदमुक्त में-
चश्मा
जब पिताजी थे
नन्हीं बिटिया की डायरी से

 

चश्मा

चश्मा तभी तक दिखाई देता है,
जब तक
आँखों से
कुछ दूरी पर होता है।
चेहरे पर
चढ़ जाने के बाद,
चश्मा
आंखों का हिस्सा बन जाता है,
तब चश्मा
दिखाई नहीं दे पाता है,
दिखाई देता है तब
बाकी सारी संसार,
उस चश्मे के आर-पार,
जो, अस्तित्व में होते हुए भी
हो जाता है अस्तित्वहीन,
क्योंकि
अति-निकटता ने
उसकी आइडेंटिटी ली है छीन।
हद से ज़्यादा
किसी के पास आना
इसीलिए दु:खदायी होता है,
क्योंकि ज़्यादा पास आ जाने पर
हर कोई
आंखों पर चढ़े चश्मे-सा
अपना वजूद खो देता है।

२४ जून २००६

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