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अनुभूति में रमणिका गुप्ता की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
खजुराहो खजुराहो खजुराहो
तुम साथ देते तो
मितवा
मैं आज़ाद हुई हूँ
मैं हवा को लिखना चाहती हूँ

रात एक युकलिप्टस

 

'खजुराहो खजुराहो खजुराहो`

मानव की
व्यक्तिगत सामूहिक सामाजिक
प्रवृतियों आकांक्षाओं पराकाष्ठाओं का
मुखर-गीत
पत्थरों की वंशी पर गाता
'खजुराहो खजुराहो खजुराहो`

पत्थरों पर उभरते आकार
शिल्प साकार
बारीकियों सूक्ष्मताओं को पकड़ते
पत्थर
मूरतों की सूरतों से झाँकतीं
सीरतें
छैनी की पैनी नज़र पर फिदा होकर
आप से आप खुल गईं
सदियों के बन्ध तोड़
पत्थरों पर जड़ीं
मुस्कानें
पीड़ा हिल गईं

आनन्द की अंतिम सीमाएँ
प्रेमातुर कल्पनाएँ
आसक्त अबोध चेष्टाएँ
यौवन की दहलीज लाँघती
प्यास
श्रृंगार के शीशे तोड़ते
हास
ममता का दूध पिलाती
मां
युद्ध के नगाड़े के गर्जते
नाद
मंदिर के नाचते-थिरकते
बोल
मयूरों के चीत्कार
अनुभूतियों भावों भंगिमाओं की
उन्मत्त
उल्लसित
अभिव्यंजना
सब के सब पथराये से खड़े
मानो शाप से किसी के
जड़ हो गये
शायद किसी लावा की राख से ढंक
जहाँ के तहाँ
भस्म हो गये
या कि नये कोबाल्ट बम के प्रभाव से
खड़े-खड़े उठते-बैठते
चलते-फिरते मृत हो गये
चेहरे पर मौत के हाव-भाव लिए लिए
सदियों से हवा के थपेड़े खाकर भी
हिल नहीं पाते

पर गीत की यह लहर
यह धुन यह लय यह स्वर
शाश्वत है
लहरा रहा समय की सतह पर
इतिहास की शिलाओं से
टकरा रहा
भूत भविष्य वर्तमान
भेदकर
क्योंकि जड़ होने के क्षण से
पहले ही
निकल चुका था
स्वर
वंशी के छिद्रों से बाहर
और वह आज भी सुनाई देता है
गाता है
'खजुराहो खजुराहो खजुराहो` !

(रचनाकाल : १९८६, विज्ञापन बनता कवि में संकलित)

२६ जुलाई २०१०

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