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अनुभूति में रमणिका गुप्ता की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
खजुराहो खजुराहो खजुराहो
तुम साथ देते तो
मितवा
मैं आज़ाद हुई हूँ
मैं हवा को लिखना चाहती हूँ

रात एक युकलिप्टस

 

मितवा

मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊँगा रे मितवा
मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊँगा!
वहाँ मुझे 'काकाई देव` पर गोली चलानी पड़ेगी
आज जब वह वोट के विरोध में
मेरे कैम्प के पास आएगा !

मैं आज काम पर नहीं जाऊँगा रे साथी
मैं आज काम पर नहीं जाऊँगा
वहाँ मुझे सड़कों पर जाती
बसों में चढ़ती
बाजार करती सीतामाय, योगमाया, गंगा, पारू को
बेतों से पीटना पड़ेगा!

मैं इस वर्दी को नहीं पहनूँगा रे मीता-
मैं इस वर्दी को नहीं पहनूँगा !
मुझे इसमें कफन नजर आता है
इसे ढाँप कर मेरी रूह
दफना दी गई है
इसे पहन कर
मैं एक जिन्दा लाश बन
सरकार नाम की प्रेतात्मा के हुक्म पर
अंधा, बहरा, गूंगा बन
अपनी ही औलाद को गोलियों से भून देता हूँ!
मैं इस वर्दी को नहीं पहनूँगा रे मीता
मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊँगा रे मितवा
नहीं साथी नहीं-मैं काम पर नहीं जाऊँगा!

(रचनाकाल : २७.२.८३, पूर्वांचल एक कविता यात्रा में संकलित- गोहाटी में असम नरसंहार के समय)

२६ जुलाई २०१०

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