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अनुभूति में डॉ सुभाष राय की
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मेरा परिचय
शब्द
सोनचिरैया
 

  सोनचिरैया

सोनचिरैया
पंख फडफडा रही है

जब से मैंने होश सम्हाला
जब से समझने लगा
देश, जनता और विकास के अर्थ
जब से पहचानने लगा
दुश्मन और दोस्त के बीच का फर्क
जब से जाना अपने और
देश के बीच का रिश्ता

तब से देख रहा हूँ लगातार
पंख फडफडा रही है सोनचिरैया

क्या वह उड़ान भरना चाहती है
उन्मुक्त, अनंत आकाश में
या नापना चाहती है
पृथ्वी और तारों के बीच की दूरी
या सूर्य की ऊष्मा
महसूसना चाहती है नजदीक से

या वह बताना चाहती है
कि हैं उसके पास
ऊँची उड़ान के सपने
या वह अपना संकल्प तोल रही है
पंखों पर उठने के पहले

या उसे अपने लिए
घोंसला बनाना है
एक दरख्त तलाशना है
ऊँचा और सुरक्षित
ताकि वह रच सके अपना भविष्य
आगे बढ़ा सके
अपने होने का मतलब

या वह आज़ादी के मायने
बताना चाहती है
अपने परों पर उठकर

या परों को झाड़ रही है सिर्फ
ताकि उन पर धूल न जमे
या यों ही बस पंख फडफड़ाने के लिए
फडफडा रही है पंख
सोनचिरैया

नहीं उसकी आवाज में वो
चुलबुलापन नहीं है
जो मैंने महसूस किया था
बहेलियों के चंगुल से
उसकी मुक्ति के बाद

वह उड़ चली थी
असीम गगन की ओर
उसे गम नहीं था

कि उसके सैकड़ों बच्चे
बलि चढ़ गए थे
निर्मम शिकारियों के हाथ

उसका चहचहाना
नहीं रुका था तब भी
जब वह छूट गई थी
घने जंगल में अकेली
उड़ चली थी राह बनाती
रौशनी के आकाश की ओर

शायद वह भूल गई है उड़ना
या कमजोर हो गए हैं उसके पंख
सपनों का वजन उठाने में असमर्थ
अपनी ही फडफडाहट से घायल
अपंग, कातर, अभिशप्त

उसकी चोंच में फँसी
हुई है एक गहरी चीख
यह फडफडाहट
मुक्ति के लिए चीत्कार है
उड़ान का पूर्वाभ्यास नहीं

हम सबको मदद के लिए
बुला रही है सोनचिरैया
पंख फडफडा रही है
सोनचिरैया

२६ अप्रैल २०१०

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