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अनुभूति में डॉ. विजय शिंदे की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
असुरों की गली में
बारिश थम गई
भविष्य के प्रति आशा

मजबूर हूँ

 

बारिश थम गई

बारिश थम गई या रूठ गई?
नंगी धरती को देख शरमा गई?
कपडे उतार नंगा नाच ले?
आकाश को बारिश की भीख माँग ले?
चाहे अपने कपडे उतारो या चमड़ी उतारो।
लेकिन एक बात ध्यान में रखो।
अपनी धरती माँ को नंगा मत करो।

बारिश थम गई या रूठ गई?
नंगी धरती को देख शरमा गई?
बारिश नंगी धरती को देख शरमाती।
आकाश के पीछे अपना मुँह छिपाती।
एक आदमी कहता-
हमने लगाया ढेर सारे पौधों को।’
क्या यह काफी है बारिश आने को?
धरती का नंगा, फटा रूप
दिखाई देता बारिश को।
फिर एक बार छिपाती
आकाश के पीछे अपने आपको।

बारिश थम गई या रूठ गई?
नंगी धरती को देख शरमा गई?
मान लिया एक समय
लगाए पेड-पौधें हम सबने।
क्या यह पेड-पौधें
काफी है माँ का आँचल बुनने को?
और भी कितने लोग हैं तैयार
बुने हुए धागों को उधेड़ने के लिये।

क्या हम धरती माँ के
नंगे शरीर पर नंगा नाच कर लें?
या उसके पहले धरती को
हरे आँचल में छिपा लें।
फिर कपड़े उतार नंगे नाच ले,
आकाश से बारिश की भीख माँग लें,
तब हरे आँचल को देखने
तैयार बारिश धरती पर निकलने।
वह आयगी
आपकी नंगी तपस्या से
प्रसन्न हो आपका शरीर ढँकने।

२१ अक्तूबर २०१३

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